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सितंबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पानी वाला घर :

समूह में विलाप करती स्त्रियों का स्‍वर भले ही एक है उनका रोना एक नहीं... रो रही होती है स्‍त्री अपनी-अपनी वजह से सामूहिक बहाने पर.... कि रोना जो उसने बड़े धैर्य से बचाए रखा, समेटकर रखा अपने तईं... कितने ही मौकों का, इस मौके के लिए...।  बेमौका नहीं रोती स्‍त्री.... मौके तलाशकर रोती है धु्आं हो कि छौंक की तीखी गंध...या स्‍नानघर का टपकता नल...। पानियों से बनी है स्‍त्री बर्फ हो जाए कि भाप पानी बना रहता है भीतर स्‍त्री पानी का घर है और घर स्‍त्री की सीमा....। स्‍त्री पानी को बेघर नहीं कर सकती पानी घर बदलता नहीं....। विलाप.... नदी का किनारों तक आकर लौट जाना है तटबंधों पर लगे मेले बांध लेते हैं उसे याद दिलाते हैं कि- उसका बहना एक उत्‍सव है उसका होना एक मंगल नदी को नदी में ही रहना है पानी को घर में रहना है और घर बंधा रहता है स्‍त्री के होने तक...। घर का आंगन सीमाएं तोड़कर नहीं जाता गली में.... गली नहीं आती कभी पलकों के द्वार हठात खोलकर आंगन तक...। घुटन को न कह पाने की घुटन उसका अतिरिक्‍त हिस्‍सा है... स्‍त्री गली में झांकती है, गलियां सब आखिरी सिरे पर बन्‍द हैं....। ....गली की उस ओर से

मुझे तुम रहने दो यूँ ही मौन !

मुझे तुम  रहने दो  यूँ ही मौन ! कितने प्रश्न  हैं भीतर मेरे, सब तोड़ दिए  वो किये हुए  अनुबंध मेरे तेरे ! किस आधार पर  निराधार करेगा  ये अपराध सारे ! है बेहतर  मेरा मौन ही  रह जाना ! किसको किसने  कबतक किसका  है माना !! फिर सोंच यह  उठता है मन मेरे , किस जीवन में  कितनी हैं  शामें और  कितने है सवेरे !! मुझे तुम  रहने दो  यूँ ही मौन ! कितने प्रश्न  हैं भीतर मेरे, मुझे तुम  रहने दो  यूँ ही मौन ! कितने प्रश्न  हैं भीतर मेरे,

एक और दिन

सुबह की  शबनमी घास  या पक्षियों का कलरव, अधखिली कलियों के  खिलने की आतुरता  सब लीन हो जाते हैं  एक और दिन गुजरने के  प्रयास में ! और फिर  सूरज ओढ़ लेता है  वही चिर पुरानी  तमिषा की चादर, शाम होने तक  कहीं रात उसके  गुनाहों का  हिसाब न मांगने लगे !