सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

दिसंबर, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

? क्यों और कब तक !

सदियों से, हैवानियत कर रही तांडव, इंसानों की शक्ल में बन कर हैवान ! और न जाने कितनी ही "दमिनियाँ" स्वाहा होती रहेंगी, इस हैवान की हवस में! कब ये दमिनियाँ, बनेंगी दावानल, जो निगल जाएँगी हैवानों की नस्ल; हर हैवानियत पर कुछ सहानुभूतियाँ, क्या मिटा सकती हैं यह हैवानियत ? और, क्या रोक पाएंगी इन हैवानों को फिर से किसी दामिनी को इस तरह जिदगी और समाज से लड़ते-लड़ते मर जाने से !

कुछ लावारिश बच्चे !

साँझ के झुरमुट से झांकता एक  नन्हा पक्षी  जिसे प्रतीक्षा है अपनी  माँ की ! सुबह से गयी थी  जो कुछ दानों की  खोज में ! दिनभर भटकने के बाद  तब कहीं जाकर  अनाज की मंडी में  मिले थे  चार दाने  घुने हुए गेंहूं के ! चोंच में दबाये  सोंच रही है , इन चार दानों से  तीन जीवों का  छोटा पेट भर पायेगा  या कि रात कटेगी  चाँद को  ताकते हुए!  तभी उसे नजर आया  उसका अपना घर और  वह  चूजा जिसे छोड़ कर निकली थी भोजन की तलाश में ! क्या कहेगी अपनों से  बस दिन भर में मिले  केवल यही चार दाने ! फिर याद आया उसे मंदिर के कोने में  बैठा हुआ एक अपाहिज  और उसका सूना  कटोरा! और कूड़े के ढेर पर पड़ी हुयी  रोटियों के लिए  लड़ते हुए  कुछ लावारिश बच्चे ! तसल्ली देकर  खुद से बोली  कमसे कम मेरा चूजा  लावारिश और  अपाहिज तो  नहीं है  आज एक दाना  ही खाकर  चैन  से सो तो सकेगा  !

उदासी उस रात की -3

उदासी उस रात की - भाग -1 रात का हिसाब माँगने जब चाँद, आयेगा तुम्हारे पास ! सांसों की गर्म तपिस में झुलसी वो बिस्तर की सलवटें कैसे बयाँ कर पाएंगी गुजरी रात की वो दास्ताँ ! अपलक आँखों से इन्तजार में गुजार दी जो तुमने वो रात अपने चाँद के लिए !! तुमने तो पढ़ लिए थे, काम के सभी सूत्र अपनी आँखों के स्वप्न में ! टूट चुका था बदन मिलन की  कल्पना से, रह गयी थी शेष वेदना आछिन्न ह्रदय में ! आया जब चाँद खिड़की पर तुम्हारी वह भी कराह उठा, देख कर उदास रात को ! चला गया वापस प्रेयसी को उदास पाकर: डर था उसे कहीं देर से आने का हिसाब न देना पड़ जाय उसे  !! उदासी उस रात की - भाग -२  गुमसुम उदास है तब से यह चाँद; उस रोज जब चाँद आया था; तुम्हारी खिड़की पर! दरवाजे पर अपलक ठहरी हुयी आँखों में पाकर; किसी की प्रतीक्षा, ठिठक गया था चाँद; उस रोज जब चाँद आया था; तुम्हारी खिड़की पर! मानो तुम्हारी तपिस में झुलस गयी है, ज्योत्स्ना की स्निग्धता, और तबसे सुलग रहा है यह चाँद! उस रोज जब चाँद आया था;

देखूँगी मैं अभी उन्हें नयन भर....!

अभी-अभी  तो वे गये हैं  आने को कह कर, अभी तो  बीते हैं   कुछ ही बरस, कुछ भी तो नहीं  हुआ है नीरस/ खुला ही  रहने दो  इस घर का यह दर.....! अभी-अभी  तो वे गये हैं  आने को कह कर, हर- आहट  पर, चौंक उठती, रह-रह कर  कहता  क्षण धीरज धर, भ्रम से  न मन भर , कहाँ टूटी है सावन की सब्र.....! अभी-अभी  तो वे गये हैं  आने को कह कर, अभी तो  ऑंखें ही  पथराई हैं, कहाँ  अंतिम घड़ी  आयी है , अभी  प्रलय की घटा कहाँ   छाई है,  देखूँगी मैं अभी  उन्हें नयन भर....!

मुझे वह मूल्य चाहिए!

मुझे वह मूल्य चाहिए! जो मैंने चुकाया है, तुम्हारे ज्ञान प्राप्ति हेतु, हे! अमिताभ; मुझे वह मूल्य चाहिए! क्या पर्याप्त नहीं थे वो चौदह वर्ष! कि पुनः त्याग दिया सपुत्र! तुम तो मर्यादा पुरुष थे हे पुरुषोत्तम ! मुझे वह मूल्य चाहिए! और हे जगपालक ! मेरा पतिव्रता होना भी बन गया अभिशाप! और देव कल्याण हेतु; भंग कर दिए स्व निर्मित नियम ! हे जगतपति ! मुझे वह मूल्य चाहिए! पर सोंच कर परिणाम; दे रही हूँ क्षमा दान, क्योंकि मेरा त्याग न हो जाय कलंकित और मूल्यहीन! रहने दो इसे अमूल्य; नहीं!  वह मूल्य चाहिए!

उड़ीसा के तंत्री

" कहने को मयस्सर हैं रोटियां, पर कीमतें है यहाँ पर अलहदा ! " एक तंत्री अपनी पुरानी हस्त-तंत्री के पास बैठा कभी चूल्हे की ओर, कभी हस्त-तंत्री पर, उसकी झुर्रियों वाली आँखें टिक जाती हैं! कभी बुनता था इन धागों से अपनी जीविका और जिन्दगी के दिन-रात, हाँ " महाजन " के हजार रुपये जो मजदूरी है पांच तंत्रियों की पूरे सात दिन की भर देती है सूनी थाली कुछ पलों के लिए ! " उड़ीसा के सोनपुर जिले में "कुस्टापाडा" के बुनकरों से बात करने के पश्चात !" शब्दार्थ : हस्त -तंत्री= जुलाहे का करघा, तंत्री= बुनकर !

ऑक्टोपस

ऑक्टोपस; सागर की तलहटी में, या समाज की मुंडेर पर, लीलते जलीय तुच्छ जन्तु या जीते-जागते मानव का पूरा-पूरा शरीर! चूंस कर उनकी रगों की रंगत, व् निचोड़ कर उसका मकरंद; हमारे बीच, हममें से ही जाने कितने ऑक्टोपस छिपे हुए लपेटे चोला मानव का; पहचानना होगा, अंतर जानना होगा , हमें ऑक्टोपस से मानव का !