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उदासी उस रात की - भाग -२

गुमसुम उदास है
तब से यह चाँद;
उस रोज जब
चाँद आया था;
तुम्हारी खिड़की पर!



दरवाजे पर
अपलक ठहरी हुयी
आँखों में पाकर;
किसी की प्रतीक्षा,
ठिठक गया था चाँद;
उस रोज जब
चाँद आया था;
तुम्हारी खिड़की पर!



मानो तुम्हारी तपिस में
झुलस गयी है,
ज्योत्स्ना की स्निग्धता,
और तबसे सुलग
रहा है यह चाँद!
उस रोज जब
चाँद आया था;
तुम्हारी खिड़की पर!


चाँद को अब भी
याद है वह पूनम
जब तुम्हारी आतुरता
और विह्वलता में
हो गयी थी अमावस!
उस रोज जब
चाँद आया था;
तुम्हारी खिड़की पर!



पीला पड़ गया था
वह भोर तक
तुम्हारी प्रतीक्षा की
निष्ठा और मिलन की
उत्कंठा को देख कर!
उस रोज जब
चाँद आया था;
तुम्हारी खिड़की पर!


उदासी उस रात की - भाग -१ के लिए लिंक नीचे दिया है :-
http://dhirendrakasthana.blogspot.in/2012/02/blog-post_28.html

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