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जनवरी, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तुम्हारी बोझिल सांसों की ये धरोहर!

बीती हुयी  जिंदगी जो थी मेरे हिस्से की  ; जी चुका  हूँ , खुशियों के झूंठे मादक प्याले पी चुका हूँ ! अब बची हैं जो कुछ मुट्ठी भर सूखी सांसें ; इनको जीने के लिए, मरता हूँ हर पल; कब बीत गया  ये क्षणिक पर लम्बा जीवन! बीत गया या आने वाला है; आगत-विगत कल ! अब विवश हूँ! नहीं ढ़ो पाऊँगा ; तुम्हारी  बोझिल सांसों  की ये धरोहर! अब समेट लो; अपनी बाहें फैलाकर; ये सांसें और जीवन; जो तुम्हारा है, कर लो लीन अपने  भीतर!!

ये प्राण बड़े ही निठुर और नीरस हैं !

ये प्राण बड़े ही  निठुर और नीरस हैं ! किस पर इन्हें समर्पित किया जाय ! कब छोड़ चले जाएँ  इन माटी के मटके  से बिन पर उड़ जाएँ ! कर लो कुछ ऐसा  जो ये क्षुण  जीवन  बन सार्थक जाय ! अर्थ निरर्थक है  सब कृतिका में ! मृग मरीचिका के  तृषा जाल से  समय पूर्व बच जाय; सब रंग बेरंग हैं , जीवन दर्शन नहीं  साश्वत और सत्य है  लेकिन जिया जाय ! हर मृत्यु करती  सुप्त को जागृत ,पर हर समय स्वयं  होता भ्रमित  क्या मेरा भी होगा अंत  इसे भी जान लिया जाय ! ये प्राण बड़े ही निठुर और नीरस हैं ! किस पर इन्हें समर्पित किया जाय !   

जन्मभूमि

आजादी मिली नहीं, छीन कर दिया है या कहें कि  मोल चुकाया है  देकर अपना  जीवन  लुटा कर अपनी  खुशियाँ और  अपना चैन -ओ- अमन ! लेकिन कुछ पल  याद कर लेना  उनकी शहादत , चुका दिया हमने  उनके अनमोल जीवन की कीमत ! भूल जाते हैं हम  आज गुजर रहा है जो  ये जैसा भी जीवन , क्या रहकर गुलाम  जी पाते ,और रह पाते  सुरक्षित और सम्पन्न ! अरे याद कर लेने भर से  नही बची रह पायेगी  ये दी हुयी उनकी  आजादी की धरोहर ! हमें भी करना होगा कुछ  जिससे बची रहे  ये आजादी और  कर सकें कुछ सुरक्षित  भारत का निर्माण ! आज जो नन्हा भारत  जन्मा है इस धरा पर  जी पायेगा इस  जीर्ण- क्षीर्ण समाज  की वीभत्स संरचना में ! बचा लो इस अपनी  जन्मभूमि को जो  आज भी तरसती आँखों से  और दयनीयता से  आसरा लगाये हुए है  अपने जवान बेटों से ! जननी और जन्मभूमि जीवन में हैं सबसे महत्त्व पूर्ण   हमें इनकी सेवा तन, मन  और सम्पूर्ण समर्पण से  करनी होगी!   

"हर भारतीय के लिए चुनौती

 "हर भारतीय के लिए चुनौती "  * सन् 1836 में लार्ड मैकाले अपने पिता को लिखे एक पत्र में कहता है: "अगर हम इसी प्रकार अंग्रेजी नीतिया चलाते रहे और भारत इसे अपनाता रहा तो आने वाले कुछ सालों में 1 दिन ऐसा आएगा की यहाँ कोई सच्चा भारतीय नहीं बचेगा.....!!" (सच्चे भारतीय से मतलब......चरित्र में ऊँचा, नैतिकता में ऊँचा, धार्मिक विचारों वाला, धर्मं के रस्ते पर चलने वाला) भारत को जय करने के लिए, चरित्र गिराने के लिए, अंग्रेजो ने 1758 में कलकत्ता में पहला शराबखाना खोला, जहाँ पहले साल वहाँ सिर्फ अंग्रेज जाते थे। आज पूरा भारत जाता है। सन् 1947 में 3.5 हजार शराबखानो को सरकार का लाइसेंस.....!! सन् 2009-10 में लगभग 25,400 दुकानों को मौत का व्यापार करने की इजाजत। चरित्र से निर्बल बनाने के लिए सन् 1760 में भारत में पहला वेश्याघर कलकत्ता में सोनागाछी में अंग्रेजों ने खोला और लगभग 200 स्त्रियों को जबरदस्ती इस काम में लगाया गया। आज अंग्रेजों के जाने के 64 सालों के बाद, आज लगभग 20,80,000 माताएँ, बहनें इस गलत काम में लिप्त हैं। अंग्रेजों के जाने के बाद जहाँ इनकी संख्या में

त्याग !

समर्पण की परिभाषा जानना कहते हो ! क्या होता है समर्पण का अर्थ ! पर कौन याद करता है, ऐसे समर्पण को ! शायद कभी जब भूल से याद आ जाता है कभी अपना स्वार्थ तो कर लेते हैं क्षण भर स्मरण और फिर भुला देते हैं उनका समर्पण ,त्याग और बलिदान ! दया की वो देवी जिसने बीमारों , घायलों और जरूरत मंदों के लिए पूरा जीवन समर्पित कर दिया! नाम तो कोई भी दे सकते हो चाहे पन्ना धाय कह लो या Florence Nightengle !

संपूर्ण स्वतंत्रता : भ्रम या यथार्थ:

इस परिचर्चा  शामिल सभी मनीषियों से क्षमा याचना मांगते हुए उनके विचारो को संकलित कर  रहा हूँ ,   संपूर्ण स्वतंत्रता : भ्रम या यथार्थ -  मोहन  श्रोत्रिय    आज मित्र आशुतोष कुमार ने इस महत्वपूर्ण मुद्दे को अपना स्टेटस बनाकर, बिना कहे, पिछले दिनों देश में इस मुद्दे पर बढ़ी बौद्धिक सरगर्मी को ज़ुबान दी. पूरी पृष्ठभूमि से आप सब वाकिफ़ हैं. इसलिए उसे दोहराना आप सबका वक़्त ज़ाया करने जैसा होगा. "क्या सचमुच कोई कहने की मुकम्मल आज़ादी का समर्थक है ?लेकिन जो कोई भी बेहूदगी , भावनाओं ( खास कर धार्मिक ) पर चोट और क़ानून के नाम पर कहने की आज़ादी पर प्रतिबन्ध के लिए किसी न किसी हद तक राजी है , उस से केवल एक सवाल है !उन तमाम धार्मिक पुस्तकों का क्या होना चाहिए , जिन में इस या उस तरीके की बेहूदगियों तथा नास्तिकों-असहमतों -मेहनतकशों और औरतों की भावनाओं को चोट पहुंचानेवाली बातों की कोई कमी नहीं है ?....चाहे ऐसा मेरी और मुझ जैसे कुछ जाहिलों की नज़र में ही क्यों न हो . भावनाएं तो हम जाहिलों की भी होती होंगी!" इस पर मैंने यह टीप की थी. "मैं अपने आपको आप वाली पांत

आज मेरा भारत अपनी ही दुर्दशा पर रो रहा है !

आज मेरा भारत  अपनी ही दुर्दशा  पर रो रहा है , हर तरफ अत्याचार,  फ़ैल रहा भृष्टाचार, रो रही मानवता ,  हो रहा दुराचार   देख कर निज सुतो का  निज पर व्यभिचार ! विवश हो रहा है !  आज मेरा भारत  अपनी ही दुर्दशा पर रो रहा है ! हाय मानव की पिपासा, जागृत क्षुधा अभिशिप्त अभिलाषा , यह कलुषित समाज, हो रहा कैसा  द्वंद्व आज ! सुभाष ,भगत आजाद, कैसे होगा सहन यह निज बांधवों का अवसाद ! अमित अस्तित्व क्यों आज खो रहा है ? आज मेरा भारत  अपनी ही दुर्दशा पर रो रहा है ! गीता का दर्शन ; पन्ना का त्याग, हल्दी घाटी का मैदान, जलियाँ वाला बाग़ ! राणा की धरती , पदमनियों का सुहाग ! आज क्रांति की हर वो सर्जक आग , सब यह व्यर्थ क्यों हो रहा है? आज मेरा भारत  अपनी ही दुर्दशा पर रो रहा है !

नसीब

संवर जाता ये मुकद्दर मेरा , जो तुम मेरे नसीब में होते! खुद को बहुत सम्भाला मैनें , न जाने क्यों मैं संभल न  पाया? हर कोशिश नाकाम हो गयी; कोई भी मुझको समझ न पाया! दिया होता लबों ने साथ मेरा, ये जलवे मेरे नसीब में होते ; संवर जाता ये मुकद्दर मेरा , जो तुम मेरे नसीब में होते! करता हूँ कोशिशें भुलाने की , हर कोशिश पे याद आ जाते हो! आंसू बन कर तुम आँखों में, हर तन्हाई के बाद आ जाते हो  होते न ये आंसू और तन्हाई  जो तुम मेरे करीब में होते  संवर जाता ये मुकद्दर मेरा , जो तुम मेरे नसीब में होते! मैं हूँ, तो किसलिए जिन्दा अब; किस खता की ये सजा पा रहा हूँ ; न तो कोई जीने का सहारा है, किस उम्मीद पे जिए जा जा रहा हूँ ? हर लम्हा मुस्कुरा के जी लेता  जो तेरे गम मेरे नसीब में होते! संवर जाता ये मुकद्दर मेरा , जो तुम मेरे नसीब में होते!

'भारत -महान !

टूटी खाट पर टूटे हुए बदन में  आहें भरता हुआ, ये तुम्हारा 'भारत -महान ! जिसके हर एक  हिस्से का टार्चर  करते हुए तथा कथित  नेता - कर्णधार ! ब्यभिचार और  व्यापार में जिनका  कोई सानी नहीं! वोटों के लिए  बेच देते हैं सरकार को ; और महंगाई की मार से  देश को कर देते लाचार ! मंदिर के चढ़ावे का  देकर ठेका ,भगवान को  भी कर देते नीलाम ! साथ में देश की  अडिग श्रृद्धा भी हो  जाती कंगाल ! और देश के आधार रुपी  ढांचे को अपने दलालों के  हांथों में देकर ,नहीं छोड़ते  बैसाखी लायक !  

बेचारा भारत का किसान!

जीवन भर तरसते हुए , लोगों का पेट भरता रहा! कभी गाली, कभी उलाहना खामोश रह कर  सहता रहा ! सारे जहाँ का गम अपना समझा , पर यहाँ निकम्मा ही  कहलाता रहा गर्मी का तपता सूरज हो  या हो  दिसम्बर का  कपकपाता जाड़ा, न मौसम का गिला दिया अपना फर्ज समझ कर कर्ज  निभाता रहा ! रुका न कभी साँस रुकने तक पेट के लिए धरती की छाती को चीरकर , अन्न उगाता रहा ! खाने को भोजन  और पीने के पानी हेतु हमेशा लड़ता रहा ! और क्या मिला ये बताकर मैं खुद को क्यों जिन्दा जलाता रहा !

कुछ लावारिश बच्चे !

साँझ के झुरमुट से झांकता एक  नन्हा पक्षी  जिसे प्रतीक्षा है अपनी  माँ की ! सुबह से गयी थी  जो कुछ दानों की  खोज में ! दिनभर भटकने के बाद  तब कहीं जाकर  अनाज की मंडी में  मिले थे  चार दाने  घुने हुए गेंहूं के ! चोंच में दबाये  सोंच रही है , इन चार दानों से  तीन जीवों का  छोटा पेट भर पायेगा  या कि रात कटेगी  चाँद को  ताकते हुए!  तभी उसे नजर आया  उसका अपना घर और  वह  चूजा जिसे छोड़ कर निकली थी भोजन की तलाश में ! क्या कहेगी अपनों से  बस दिन भर में मिले  केवल यही चार दाने ! फिर याद आया उसे मंदिर के कोने में  बैठा हुआ एक अपाहिज  और उसका सूना  कटोरा! और कूड़े के ढेर पर पड़ी हुयी  रोटियों के लिए  लड़ते हुए  कुछ लावारिश बच्चे ! तसल्ली देकर  खुद से बोली  कमसे कम मेरा चूजा  लावारिश और  अपाहिज तो  नहीं है  आज एक दाना  ही खाकर  चैन  से सो तो सकेगा  !  

अदना सा विश्वास !

अँधेरे में भी चाहते हो , साथ दे तुम्हारा साया  जब स्वयं  का  अस्तित्व    नही जान पाए  साया तो एक भ्रम है ! जब तुम्हारा  स्वयं  का  विश्वास   तुम्हे ही  नहीं स्वीकार कर पा  रहा है ! किसी अन्य का अस्तित्व  तुम्हे कैसे सह्य होगा ! परन्तु  आशाओं के समक्ष यह अदना सा विश्वास ! वायु के हल्के से झोंके में  डिगने लगता है !

प्रश्न ?

कि आज पुन: , जीवन को न्यायालय में अपराधों और आरोपों के समक्ष स्वयं को प्रस्तुत करना पड़ा! यही जीवन जो कभी धन्य हुआ था गीता के कर्म पथ पर प्रेरित करने वाले दर्शन से; यही जीवन जो कभी वेदों की ऋचाओं के पावन स्पर्श से हुआ था अमर , क्यों रे कलुषित और कलंकित , अनन्त काल के व्यथित पथिक; किस दंड से होगा तेरा चिर त्राण ! क्षण -प्रति क्षण होकर भ्रमित , भटक रहा व्योमोहित , क्यों कर रहा व्यर्थ अप्राप्य श्राम? ढोकर इन नीरस प्राणों को, किस गंतव्य की खोज में गतिमान है तेरा पंच हय यह नश्वर स्यन्दन ! पर क्या उत्तर देता ये जीवन , अनुत्तरित ही गतिज बना अनन्त की ओर!     

'संसय,

पुष्पों का चिर रुदन , जीवों का यह कृन्दन , अब और तुषारापात! सह कर रहा नहीं जाता ! सूरज भी व्याकुल है ; उसका भी मन आकुल है, ह्रदय पर यह आघात , चुप रह सहा नहीं जाता ! कुहासे की यह क्रीड़ा, देखकर अत्न की पीड़ा ; निज पर निज का संघात! कुछ और कहा नहीं जाता जीवन में यह कैसा संसय , देख कर हो रहा विस्मय ; चल रहा कैसा चक्रवात ; अब और चुप रहा नहीं जाता !

'Remains’

The momentum which I Passed, And you treasured in memories; How could you lost ’hem now, Oft I think and recall …………! Still I get petrified ‘Remains’. When I saw your visage in my heart I felt luminous flame of glaring part, You still alive in these passed recalls. Always your chanting hymns come falls I was sure about your painting But never not so soon, Night has been passing since; Waiting still gloaming moon.!!

अंत हीन निशा !

बीते बरस ऐसे , मानो कल की बात हो ! रीता जीवन जैसे अमावस की रात हो ! दिन भर बाद , उन शामों का ढलना, दिल में अधूरी आशाओं का मचलना, सोंच कर मन में  बिछलन  की बातें ; सांसों का रुक जाना, दिल का दहलना ! उनका मेरे जीवन से जाना ; जैसे कोई अधूरी बात हो! रीता जीवन जैसे अमावस की रात हो ! कुछ कहना और कुछ सुनना, मन ही मन कुछ -कुछ बुनना, चुनना सपने, सपने गुनना ! सपने- अपने सब भूल गये; रह गया बस सांसों का चलना! कहाँ खो गयी ऊषा की आशा; जैसे अब ये अंत हीन रात हो ! रीता जीवन जैसे अमावस की रात हो !

A Heart;

Alas! It's called A Heart; Which gives us all, That need for life; But! It seems, is useless Fails to feed in need! Gives only grieves and pains; Perhaps! Our nutritions are not so; And not as needed for it, So, It gets confused in task; neither fails nor pass; We want pure and perfect, Where's it come as perfection !

आह्वान !

तोड़ दो सपनों की दीवारें  मत रोको सृजन के चरण को! फैला दो विश्व के वितान पर; मत टोको वर्जन के वरण को ! कितनीं आयेंगी मग में बाधाएँ , बाधाओं का कहीं तो अंत होगा ही  कौन सका है रोक राह प्रगति की ; प्रात रश्मियों के स्वागत का यत्न होगा ही! नीड़ से निकले नभचर को  अभय अम्बर में उड़ने दो! प्रलय के विलय से न हो भीत, तृण - तृण  को सृजन से जुड़ने दो ! जला कर ज्योति पुंजों को  हटा दो तम के आवरण को ! तोड़ दो सपनों की दीवारें  मत रोको सृजन के चरण को! कंचन कामिनी और कीर्ति का  जग हेतु तुम परित्याग कर दो ; फूंक प्राण चेतना के उर में, नव सृजन का अनुराग भर दो! कुंठित कुंठाओं का क्लेश हार , नव आश का सनचार कर दो! मिटाकर दानवता इस जग से ; मानवता का शृंगार कर दो ! विस्मृत कर निज वेदना को ; रोक लो तुम निर्मम प्रहरण को ! तोड़ दो सपनों की दीवारें  मत रोको सृजन के चरण को!

अभिलाषा !!

सागर तट की वह ऊष्ण रेत, जिसकी आद्रता क्षणिक थी, जीवन के वो पल जो गुजरे थे, कभी उस रेत पर , रेत तब से अब तक वैसी ही है; पर वे क्षण , अभी भी आँखों को गीला कर जाते हैं! आज मैं भटकता हुआ पहुँच गया उसी रेत की तलाश में वे कुछ कण जो बदन से  लिपटने के बाद फिर बिछुड़ गए, वहीँ कहीं पर! शायद कहीं कोई रेत का कण आज भी उन क्षणों की प्रतीक्षा में ! ठहरे थे , पर अभागा वह और मैं आज भी कर रहे हैं फिर से वाही अभिलाषा !!

'आत्म हत्या'

सुबह-सुबह ही एक घर के सामने, पुलिस का वहां खड़ा था ; एक दरोगा दो कनेस्टेबेल लाश के पंचनामे के पचड़े में उलझे हुए--- चित्रकार चित्र उतार रहा था, लाश के हर दिशा से, हर कोण से मात्र गले के ही तीन चित्र उतारे गये; फिर पूंछ ताछ हुयी;- मृतिका का नाम- कुसुम (जिसे खिलने ही न दिया गया ) उम्र - बीस साल , पति का नाम- दयाल; स्वसुर का नाम- अमीरचंद , ब्याह कब हुआ था -एक वर्ष पहले! तो मामला संगीन है; अपराध भी तो कम नहीं है; लाश पोस्त्मर्तम को जायेगी, कार्यवाही तभी होगी जब वहां से रिपोर्ट आयेगी ; शाम को बाप बेटे दोनों - पहुंचे एस पी के पास , मन प्रसन्न, चेहरा उदास; मंत्री का पत्र साथ था, एस पी से सीधे मिलने का पास था! बात पचास हजार में तय हुयी, कुछ दिन पश्चात रिपोर्ट भी आ गयी , कुछ ऐसी थी जो अदालत को भी भा गयी! यह 'दहेज़ उत्पीडन' की घटना, न होकर 'आत्महत्या' करार दी गयी ; एक पत्र पर बहू के हश्ताक्षर जो थे; उसी की हत्या के साक्ष्य जो थे, लिखा था- मेरे पिता ने मुझे बलात यहाँ ब्याहा था , जो की मेरे लिए अनचाहा था , मेरा अंतरजातीय प्रेम, प्रे

जिन्दगी है एक धूप छाँव सी;

जिन्दगी है एक धूप छाँव सी; पल-पल बदले शहर गाँव सी! कभी मिल जाते मीठे पल, कभी याद आते बीते कल;  हसती, रुलाती, गुदगुदाती; कभी दुखती है जिन्दी घाव सी; जिन्दगी है एक धूप छाँव सी; कभी अपने भी पराये हो जाते, कभी पराये भी अपने हो जाते! जश्न मानती है जिन्दगी कभी; तो कभी डगमगाती है नाव सी; जिन्दगी है एक धूप छाँव सी; अनजानी राहों से है गुजरती ; तो कभी ठहराव लाती जिन्दगी! जिन्दगी के हैं कई रंग-रूप: है ये जिन्दगी एक बहाव सी ; जिन्दगी है एक धूप छाँव सी; कभी सुबह की लाली है तो कभी लगती है  उदास शाम सी; चलते-चलते चली जाती है; यह  तो बस है एक पड़ाव सी, जिन्दगी है एक धूप छाँव सी; पल-पल बदले शहर गाँव सी!

अपवृत्त

किस व्यथा से है व्यथित किस हेतु कर रहा पश्चाताप मिथ्या से होकर भ्रमित, क्यों कर हो रहा तीव्र संताप! निज को तू कब पहचानेगा किस भ्रम से है अब भ्रमित ; पूर्ण का अपूर्ण अंश है तू व्यर्थ स्व को कर रहा श्रमित! तज निज की अब यह तन्द्रा स्वप्न मरीचिका से हो जागृत; नश्वर है जो नहीं शास्वत , सर्व से ही है आगत-विगत ! अपूर्ण को कर दे पूर्ण, वह पुन्य पथ है निर्वाण का; अन्य पथ सभी भ्रम के; करेंगे बाधित लक्ष्य त्राण का! यह है तृष्णा की तपिश जो, तू पुकारे हा तृष्णा, हा तृष्णा ; होकर भ्रमित कृतिका से, कर रहा तू ये जीवन मृष्णा! फल की लिप्सा में तू क्यों कर, कर्मच्युत हो रहा जीवन में ! जीवन तो है क्षणिक पर,अब लक्ष्य चिंतन कर मन में !

अपनी ही दास्ताँ

 कोई भूल जाता है अपनों को  कोई अपना लेता है  सपनो को , किसी को दर्द में मिलती  ख़ुशी,  कोई  ढूढ़ रहा  ग़मों में हंसी , कोई रो रहा है  अपने ही हाल पे ; नाच रहा कोई दूसरे की ताल पे, सब अपनी ही  कहानी बुने जा रहें , अपनी ही दास्ताँ  खुद ही सुने जा रहें ! दस्तूर है इस जहाँ का  किसी का कोई  सहारा नहीं होता; डूबती कश्ती का और  आती -जाती मौजों  का  किनारा नहीं होता !

तृषा का सागर न दो,

अतृप्त    मन की  अधूरी प्यास को  तृषा का सागर न दो, दो मीठे शब्दों के  भूखे को ,स्वर्ण  भरा गागर न दो; जीवन की प्यास  नही  जिसे, उसको   अमरत्व का वर न दो ! लक्ष्य भटक जाय  पान्थ का , पग  उस पथ पर न दो ! टूट चुका कष्टों से; अब ये दु:ख उसे  जीवन भर न दो !

कविता और कहानी के आधुनिक कलेवर पर लोगों की राय !

मोहन श्रोत्रिय   यह देखने पर " ज़ोर " कम क्यों हो गया है , इन दिनों , कि कहानी में कितना " कहानीपन " बचा है ? और   कविता में कितनी " कविताई "? और इन दोनों में बोलना   हमारे समय का ? कहीं यह उत्तर - आधुनिकता का असर / लक्षण ही तो नहीं कि कविता - कहानी में मूल   अंतर्वस्तु के सिवाय बहुत कुछ दिख जाता है ? कि समय   शिल्प में बोलता है या कथ्य में ? कि शिल्प यदि अलग से बोलता है रचना में , तो वह रचना की ताक़त हो   सकता है क्या इस अनुच्छेद पर हुयी चर्चा के अंश : प्रेम चंद गाँधी   :   सर , आप बिल् ‍ कुल सही कह रहे हैं। इधर शिल् ‍ प पर कुछ ज् ‍ यादा ही जोर है और सच में   यह हमारे समय की उत् ‍ तर आधुनिक ट्रेजेडी है। यह   अलग किस् ‍ म का रूपवादी समय है , जहां अंतर्वस् ‍ तु के बजाय शिल् ‍ प को पसंद ही नहीं किया जा रहा , बल्कि   उसे ही मुख् ‍ य माना - कहा जा रहा है। धीरेश सैनी   :   पिछले कुछ बरसों में कुछ अजूबा करने का कंपीट